बुझी हुई मोमबत्तियां, क्रीम के बंद डिब्बे। एक ख्वाजा सिरा की दास्ताँ का आग़ाज़। “मुझे बहुत अच्छा लगता है जब मैं नाचती हूँ। लड़के मेरी तरफ देखते हैं और मैं अपने आप को खूबसूरत महसूस करती हूँ। मैं हमेशा लड़कियों की तरह कपडे पहनती थी और लड़कियों के साथ खेलती थी। माँ और भाई चिल्लाते। मैं हर तरह से बिलकुल लड़की थी। लेकिन ख़ुदा ने मुझे लड़का पैदा किया।”
पाकिस्तानी पत्रकार और निर्देशक शरमीन उबैद-चिनाई की फ़िल्म ‘ट्रांसजेंडर – पाकिस्तान का ओपन सीक्रेट (खुला रहस्य)’ (२०११) कराची में रहने वाले ३ ख्वाजा सराओं के जीवन पर आधारित वृत्तचित्र है। भारत के हिजड़ों की तरह ही पाकिस्तान के ख्वाजा सिरा अपनी ज़िन्दगी समाज के हाशिये पर गुज़ारते हैं। पाकिस्तान के ख्वाजा सराओं पर मपनी “फॅमिली खुसरेयाँ दी” (२००९) की एक पंजाबी फ़िल्म से आप शायद परिचित हैं। लेकिन शरमीन जी की ‘ओपन सीक्रेट’ इस फ़िल्म की खासियत यह है कि वह बिना लोगों के पूर्वाग्रहों और गलतफहमियों को सहलाये, और बिना खुसरों को हँसी-मज़ाक का निशाना बनाए, यह फ़िल्म उनके जीवन के उन पहलुओं तक पहुँचने और फिल्माने में कामयाब होती है, जिनका ज़िक्र बहुत ऊपरी-ऊपरी सतह पर होता है। आइए मिलते हैं इन तीन हस्तियों से।
चाहत
चाहत को अपना नाम पसंद था, जब वह कमसिन थी। अब उसे शर्मिंदगी महसूस होती है। कुछ लोग हिजड़ों को उनकी बद्दुआओं के डर से उन्हें झिड़कते नहीं हैं। हाथ में नोटों को गींजते हुए, गाड़ियों की खिड़कियों से देखी-अनदेखी करने वालों से भीक माँगते हुए वह कहती हैं, “प्यारी बाजी, अल्लाह आपकी मुराद पूरी करे” और “प्यारे साहिब, अल्लाह आपकी खैर करें”। निर्मोहिया देखवैये टिपण्णी करते हैं, “ये लोग रात को अपने जिस्मों से लोगों को फुसलाकर समाज को तबाह कर रहे हैं”, “ये नकली औरतें है, और भीकमंगों के अलावा कुछ नहीं”, इत्यादि।
इर्द-गिर्द घूमते कराची शहर के २.५ करोड़ बाशिंदों के अविरल तनतने के बीच वह अपने आप को बिलकुल अकेला महसूस करती हैं। सहज ही वह लाख टके की बात कहती हैं “परिंदा हमारी तरह हैं। पैदा कोई करता है, पालता कोई और है। माँ-बाप का पता नहीं। खानदान से मैं निकाला गया। काश मैं भी अपने भाइयों की तरह होता। रस्ते में कोई ‘छक्का’, कोई ‘ऐश्वर्या’, ‘माधुरी’, ‘सना’, ‘खागला’, ‘खुसरा’ ऐसे नामों से पुकारते हैं। दिल करता है चीर दूं, पर दिमाग़ मर गया है, कहता है कुछ भी कह दो। मगर हम भी समाज का हिस्सा हैं। पत्थर से पैदा नहीं हुए, माँ से पैदा हुए हैं”। इसलिए कमाई के बाद की दिहाड़ी लेकर वह ४ दिवारी के अंदर बंद रहना पसंद करती हैं। आँख ओझल, पहाड़ ओझल। पड़ोस के बच्चों के साथ खेलकर खुश हो जाती है। बच्चों को चुम्मी देते हुए उसे लगता है, की अगर उसके भी बच्चे होते तो कील को सुकून आता। लेकिन न वह बच्चा गोद ले सकती है,न किसीने उसे बच्चा देना है।
चाहत का मन भले ही निर्लिप्त हो, मौलवियों के मानों में कोई आशंका नहीं है कि उसकी तर्ज़-ए-ज़िन्दगी बिलकुल हराम है। एक मौलवी कहते हैं, “शनाख्त को तबदील करने, और आवाज़ें कसने से कोई औरत नहीं बनता। किसने कहा इनकी रूह औरत की है? कोई पैग़ाम आया है आसमाँ से? मरदाना सलाहियत को ख़तम करके, ये इंसानी मुआशरे से अपने आप को दूर करते हैं। और अगर ये औरतें हैं, तो निकाह करें, इज़ज़त की ज़िन्दगी गुज़ारें। चौराहों पर अपने आप को बेचना कौनसा जीने का तरीका है? ये ग़लत रास्ता है।”
हिजड़ों की तरह ख्वाजा सिराओं में गुरु-चेले की सिस्टम बरक़रार है। इस फ़िल्म में एक चेला ‘मिस मुस्कान’, और एक गुरु ‘बिंदिया’ एक दुसरे को क़ुबूल करती हैं। गुरु चेले को दुपट्टा और नथनी पहनाती हैं और औलाद की तरह सुलूक करने का वादा करती है। जबकि चेला गुरु का एहतराम करता है और वालदैन की तरह इज़ज़त देता है। लेकिन बात नहीं मानने, गुरु को छोड़ने या भड़भड़ाए बदतमीज़ी करने पर चेले को नसीयत दिलाने के लिए जुर्माना भी देना पड़ता है, और उसका ‘हुक्का-पानी’ कम किया जाता है। दूसरे हिजड़े भी उससे तब तक बात नहीं करते जब तक वह गुरु से माज़रत न करे। लेकिन क्या यह सरासर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ तत्तव पर आधारित ग़ुलामी और शोषण नहीं? गुरु मानते हैं की एक तरफ से खरीदना बेचना हुआ, लेकिन भेड़-बकरियों की तरह नहीं। पेट पालने, ज़िंदा रहने के लिए रोज़ी-रोटी कमाने के उनके पास इसके अलावा तरीक़े नहीं हैं, ऐसा उनका कहना है। एक कीमत पर ख़रीदे चेले को मुनाफे के साथ फिरसे बेचा जा सकता है।
फ़िल्म के भीतरिया नज़रिये से हैम देखते हैं एक सौदा, एक चेले को एक गुरु दूसरे गुरु को बेचते हैं। जवान ख्वाजा-सिरा की कमाई का प्रलोभन और मौजूदा दरिद्री गुरुओं को दरकाता है, और सम्भाषण का परिवर्तन धमाचौकड़ी में हो जाता है। लेकिन आखिर सौदा पूरा हो जाता है। नाक पर ऊँगली रखने वाले किसी भी लड़के को ख्वाजा-सिरा करार करके उससे उसके हक़ूक़ छिकंकर उसे समाज की गंदगी में खदेड़ देना किस तरह की संस्कृति-सभ्यता है? तृतीय पंथियों की अलग पहचान, उनके इतिहास और तौर-तरीक़ों को महफूज़ रखकर क्या कर सकते हैं जिससे वे गुलामी, शोषण और पिछड़ेपन के दलदल से छुटकारा पाए?
भले ही ख्वाजा सिराओंने सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप पर अहम् किरदार निभाया हो, आज की तारीख में उनके रहन-सहन में कोई मुगलिया ठाट नहीं हैं और उन्हें बँधी मुठ्ठी से जीवन की गाडी हाँकनी पड़ती है। ४ ख्वाजा सिरा जब लिपस्टिक खरीदने जाती हैं, तो उलटे वे दुकानदार से ही १०-१० रुपये ऐंठ लेती हैं! चाहत किसी वक़्त सर्कस में डांसर थी, और अपने फोटो दिखाती हैं। उनकी माँ का कैंसर के लिए ऑपरेशन हुआ था लेकिन हो जाने तक किसीने उसे खबर नहीं की। दुखी होकर चाहत ने पीना शुरू किया और एक दिन गाडी ने उन्हें ठोक दिया। वे कहती हैं, ‘मैं मरना चाहती थी, हक़ीक़त में। गुरु को और पैसे चाहिए थे, इसलिए ज़यादा घंटे काम करना पड़ा। सबसे बड़ा व्यंग्य ज़िन्दगी ने उनके साथ ये खेला कि ज़यादा पैसे इकठ्ठा करने के लिए उन्हें सदर-ए-पाकिस्तान के घर के सामने भीक मांगनी पड़ती है। “उनके घर कि दीवारे कितनी ऊंची हैं, शायद उन्हें हम नज़र ही नहीं आते!’। हम मांगते हैं, चोरी तो नहीं करते।
चाहत को एक कमउम्र ख्वाजा सिरा मिल जाता है, जिसकी तो रेख भीगनी भी शुरू नहीं हुई। वह उसे अपनाती है। कहती है कि नशेड़ी बदमाश गुंडों से मुह लगकर गुरुओं के लिए काम करना निरर्थक है क्योंकि आखिर वाही गुरु गर्दन काटते हैं, इसलिए चाहत उसे अपने पास रखकर इस अंजाम से बचाना चाहती हैं। अपना खानदान होने का सुकून आखिर उसे मिलेगा, और पंछियों कि तरह लावारिस नहीं महसूस करेगी. लेकिन चाहत का चेला भी उसे छोड़ देता है।
मैगी
२००९ के पाकिस्तानी उच्चतम न्यायलय के हिजड़ों को पहचान पात्र देने के निर्णय को लागु करने के लिए कराची प्रेस क्लब के सामने मोर्चा निकाला, जहाँ हमारी मुलाक़ात कहानी के दूसरे प्रमुख पात्र मैगी से होती है। उसका सपना एयर होस्टेस बन्ने का है, जिसके लिए वह एयरलाइन कंपनियों के दरवाजे खटखटाती हैं, पर कोई उन्हें फार्म तक नहीं देता। शायद अपनी ज़िन्दगी में इज़ज़त की नौकरी है ही नहीं, यह निष्कर्ष पाकर वह नाच-गाकर पेशेवर कॉल गर्ल बनती है। रात को रस्ते के किनारे गाड़ियों मैं बैठकर लोगों को खुश करना उसका कमाने का जरिया है। फ़िल्म की यह खासियत है कि ख़ुफ़िया कैमरे से, बिना किसी की प्राइवसी का उल्लंघन किये, चित्रण किया गया है। हमारे समाज में पूजे जानेवाले सतीत्व से यह तथाकथित ना-महरम ‘सतखसमी’ कोसों दूर है, इस विडम्बना से मैगी अनजान नहीं है। सतर्क होने के बावजूद फायरिंग, किडनैप, बलात्कार इत्यादि का डर छाया रहता है। सबसे खौफनाक मनहूस लम्हा तब आया जब ४ लड़कों ने बलात्कार करके उसकी पीठ तोड़ दी। पुलिस के पास नहीं गयी क्योंकि उसके मुताबिक वे कहते ‘तुम्हारा काम ही ऐसा है’। अब वह अपने दोस्त के साथ जाती हैं, जो सैक्स के वक़्त गाड़ी में पिछली सीट पर बैठती हैं।
इस फ़िल्म में ख्वाजा-सराओं की निजी ज़िंदगियों की भी झाँकी मिलती है। मैगी अपने पार्टनर को कभी यह ‘कमी’ महसूस नहीं होने देती की वह ‘शी-मेल’ हैं, औरत नहीं। वह अपने बॉयफ्रेंड से निकाह नहीं कर सकती। इसलिए वह मन मारकर कहती है की वह प्यार नहीं करती, चाहत करती है, क्योंकि अगर उसने प्यार किया तो वह उसे छोड़ नहीं पायेगी।
फिर मुद्दा है स्वास्थ्य और इलाज का। पुरुषों को आकर्षित करने के लिए रूपवती मैगी स्तनों का आकार बढ़ाना चाहती है। इसके लिए अपने दोस्त के ज़रिये वे संतति-निरोध के इंजेक्शन लेती हैं जो गर्भवती महिलाओं के लिए होते हैं, लेकिन जिनकी वजह से ख्वाजा सिराओं के स्तनों में वृद्धि होती है। अगला क़दम होता है खसीकरण या कैस्ट्रेशन। पहले तो गुरु ही चेलों के खसीकरण करते थे। ज़िन्दगी को खतरा होने के बावजूद, बहिरंग दृष्टि से स्त्री होने की ओढ़ इतनी तेज़ होती है कि ख्वाजा सिरा ये जोखिम उठाने को भी तैयार होते हैं। गुदा मैथुन करने (‘शॉट’) से निकाह टूट जाता है, इसलिए पुरुष उनके साथ यह करते हैं, ऐसा उनका दावा है, लेकिन एच-आई-वी और एड्स के बारे में उनको बुनियादी जानकारी भी नहीं है, यह उनकी बातों से साफ़ ज़ाहिर होता है।
मैगी का कहना है कि बहुत से ऐसे मौलवी हैं जो बाहरी तौर पे इज़ज़तदार हैं लेकिन असल में पाखंडी हैं, क्योंकि वे किसी लड़की या खुसरे को नहीं छोड़ते। डाक्टर ने उसे स्तन-वृद्धि के इंजेक्शनों से पैदा खतरे के बारे में समझाकर एच-आई-वी की जाँच कराने की सलाह दी है, परन्तु मैगी सच का सामना नहीं करना चाहती। इसी दौरान उसका बॉयफ्रेंड भी अपनी कजिन से शादी करने के लिए उसे छोड़ देता है।
एक सीन है जिसमें मैगी कराची एअरपोर्ट के पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइन्स के दफ्तर के दरवाज़े के सामने एक आखरी बार नौकरी माँगने कड़ी जो जाती हैं। दरवाज़े पर एक एयर होस्टेस का पोस्टर है, सर ढँका हुआ, सभ्यता कि ऊंचाइयों से मुस्कुराती हुई। मैगी उसे निहारती हैं, और फिर दरवाज़े को धकेलती हैं। दरवाज़े पर लिखा हुआ होता है: ‘अनधिकृत व्यक्तियों को प्रवेश की अनुमति नहीं’। इस एक वाक्य में समाज के सारे भेदभाव का सार भरा है।
सना
कोर्ट के निर्णय के बावजूद जब हमारी कथा की तीसरी प्रोटागोनिस्ट सना नादरा की कचहरी में कार्ड के बारे में पूछने जाती हैं, तो उन्हें पुरुषों के साथ लम्बी कतार में खड़ा किया जाता है। तालीम, काम-काज या पेंशन जैसे संरक्षणों के लिए यह कार्ड ज़रूरी है। लेकिन वहाँ के कर्मचारी उन्हें बताते हैं की ऐसी कोई नोटिस नहीं जारी हुई है। दफ्तरशाही की चक्की में ख्वाजा-सिराओं के अधिकार पिस रहे हैं। लेकिन सना अपना मन कच्चा नहीं करती हैं, कहती हैं की वह पीछे नहीं हटेंगी और लौटेंगी ज़रूर।
रिश्तों की क्षणभंगुरता एक ख्वाजा सिरा और उसके ९ साल से रहे पार्टनर सलीम की बातों में झलकती है। गुदा सेक्स अपराध होने के बावजूद वे एक साथ निडर होकर रहते हैं। उनका साथ रहना ग़लत समझा जाता है। सलीम के दोस्त उसे चिड़ाते हैं की वह भी ‘वैसे’ बन जायेगा। सलीम पहले पहल क़ुबूल करते हैं की उन दोनों के जिस्मानी तालुकात हैं, और ऐसे तालुकात जो औरत के साथ नहीं हो सकते। उनकी मंगेतर से वे शादी करने वाले है और इस बात को सब ने स्वीकार किया है। वे कहते हैं की घरवालों के कहने पर वे औरत शादी कर रहे हैं, और अगर मुमकिन होतातो वे ख्वाजा सिरा से शादी करते। शादी के बाद एक दिन वे अपनी बीवी और एक दिन ख्वाजा सिरा के साथ बिताने में किसी आपत्ति की अपेक्षा नहीं करते।
सना फंक्शनों में नाचती हैं, और बताती हैं किस तरह पिस्तौल की धाक पर एक फंक्शन में ही उन्हें रेप किया गया। अब वह नाचना नहीं चाहती हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड अफसरों की टैक्स रिकवरी टीम में उनका समावेश हो जाता है। बीतीं पुश्तों से ज़यादा कुछ कर पाने का उनको अभिमान है। टैक कलेक्टर के अवतार में हिजड़ों को सफलता मिलती है। भड़कदार कपड़ों में वे दुकानों पर जाती हैं, शोर मचाकर लोगों से वसूली करती हैं। भभकी में आकर दुकानकार उन्हें पैसे तो देते हैं, और इस तरीक़े को ग़लत समझते हैं, लेकिन ख्वाजा सराओं के लिए इसमें दबंगपन होने के बावजूद ये बहतरीन काम है। उन्हें एक मक़ाम मिलता है और हर ख्वाजा सारा को नौकरी मिलने के सपने के वे और क़रीब हो जाते हैं।
इस तरह उम्मीद और निराशा की मौजों का सामना करती हुई चाहत, मैगी और सना अपनी जीवन दास्ताँ बयाँ करती हैं।
- “Those Left Behind Things” – an ode to queer refugees - February 1, 2019
- Twilight, The Day Before - September 5, 2018
- “बुज़ुर्ग हैं, क्षीण नहीं” – “सीनेजर्स” वयस्क सम/उभय/अ लैंगिक पुरुषों का प्रेरणादायक संगठन - January 22, 2018