चित्रा पालेकर की बेटी शाल्मली ने उन्हें १९९० के दशक में बताया कि वह समलैंगिक है। तबसे चित्रा ने एक लंबा सफ़र तय किया है – समलैंगिकता समझने का और एल-जी-बी-टी समुदाय को अपनाने का। दिल्ली उच्च न्यायलय में एल-जी-बी-टी लोगों के कुछ माँ-बाप ने समलैंगिकता के निरपराधिकरण के पक्ष में याचिका दायर कि थी, जिनमें चित्रा भी शामिल थीं। विभिन्न शहरों में बैठकों और मीडिया के ज़रिये वे लैंगिकता अल्पसंख्यकों के लिए लड़ती हैं।
चित्राजी का जन्म धारवाड़, कर्णाटक में हुआ। मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। १९६० के दशक से वे रंगमंच से जुडी हैं। बतौर फ़िल्म निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म ‘माटी माय’ को बहुत सारे पुरस्कार मिले। आज हम चित्राजी के साथ गुफ्तगू करेंगे, भारतीय लैंगिकता अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई के संदर्भ में।
०१) भारतीय संस्कृति की कौनसी विशेषताएँ हैं जो समलैंगिकों के माँ-बाप को उनके बच्चों को स्वीकार करने में सक्षम करती हैं?
भारतीय संस्कृति में सहिष्णुता बहुत महत्त्वपूर्ण है। खजुराहो के शिल्पों और कामसूत्र के बारे में हर कोई बात करता है। लेकिन पुरातन काल से चली आ रही लैंगिक अल्पसंख्यकों की तरफ स्वीकृति सिर्फ यहाँ तक सीमित नहीं है। महाकाव्यों और गीतों में तृतीय प्रकृति के व्यक्तियों के बहुत सारे उल्लेख हैं। सारी दुनिया में जो अलग है उनके प्रति लोग थोडा डर या थोड़ी घृणा महसूस करते हैं। रंग, क़द, आँखें वगैरह अगर अलग हो तो हम उसपर कॉमेंट करते हैं। यह तो मानवी स्वभाव है। पर उसके परे, भारतीय संस्कृति में किसी को तकलीफ नहीं देते। “अच्छा, जो है, वो है” कहकर छोड़ देते हैं। कम से कम पहले तो ऐसे था। लगता है हम अपनी ही सहिष्णु संस्कृति को गँवा रहे हैं।
मेरा ड्राइवर यू.पी. के एक छोटे-से गाँव से आया था। वह मुझे कह रहा था, ट्रांसजेंडर लोग हमारे गाँव में भी हैं। पर वो बेचारे ऑपरेशन नहीं करवा सकते। उनके पास इतने पैसे नहीं होते। इसलिए उनको वैसे ही रहना पड़ता है। तब मेरी आँखें खुली। हम जैसे पढ़े-लिखे लोग ही सब को बराबर मानते हैं, ऐसा नहीं है। इसमें मानव धर्म, करुणा, प्रेम है वे दूसरों को अपना लेते हैं।
०२) भारतीय संस्कृति की कौनसी विशेषताएँ हैं जो समलैंगिकों के माँ-बाप को उनके बच्चों को स्वीकार करने मेंअक्षमकरती हैं?
ग्रंथों और संस्कृति में उल्लेख होने के बावजूद, हम सैक्स, यौन व्यवहार और आदतों के बारे में खुले-आम एक-दूसरे से बात नहीं करते। ऐसे बर्ताव की अनदेखी करना ज़यादा पसंद करते हैं। अतः जब भिन्नलैंगिकता के बारे में भी इतने सालों से कोई बात नहीं हुई, समलैंगिकता भी वर्जित विषय है। हम अपने इतिहास को भूल गए हैं। हमपर अंग्रेज़ों ने लम्बे अरसे तक राज किया। जैसे अंग्रेजी शब्द हर भारतीय भाषा में घुस गए हैं, उनकी नैतिकता भी हमारे ज़हन पे कब राज करने लग गयी, हमे पता ही नहीं चला। जब १८६० में मैकॉले ने ये कानून बनाया, उसके पहले अपनी संस्कृति में चीज़ें अलग थीअरसे विक्टोरियन मोरैलिटी ने पोशाख में भी बदलाव लाए।
और एक बात: कोई भी उठकर भारतीय संस्कृति को अपने ढंग से परिभाषित नहीं कर सकता, कि ये भारतीय संस्कृति के अनुसार है और वो भारतीय संस्कृति के अनुसार नहीं है। एक तरफ हम अपने देश को सेक्युलर संविधान से चलाते हैं जो हर धर्म को सामान मानता हैं। लेकिन जब भी कोई विवादास्पद बात आती है तो लगे-हाथ हम कहते हैं “नहीं, इनको दुःख होगा, इनकी भावनाओं को ठेस पहुँचेगी, इत्यादि। अतः हम विद्वत्तापूर्ण ज्ञान को ठुकराते हैं। सोचते नहीं। अपने से बड़ों का आदर करना इसका मतलब ये तो नहीं कि वे जो भी कहें सीधे-सीधे स्वीकार करना। मैंने मेरी बेटी को सबका आदर करने को सिखाया पर साथ ही हम लोगों को सवाल पूछना भी सिखाया। नहीं तो हमारा विकास कैसे होगा? आँखें मूंदकर कभी-कभार हम तर्कहीनता से अँधा अनुकरण करने का शिकार हो जाते हैं।
०३) दिसंबर ११, २०१३ के समलैंगिकता के पुनः अपराधीकरण के निर्णय के विरुद्ध की रिव्यु याचिकाएँ २८ जनवरी २०१४ को ४ लाइनों में खारिज की गई. आप दिल्ली हाई कोर्ट में बतौर पालक एक स्पेशल लीव पेटिशन में निवेदक थीं. आपको कैसा लगा?
उस दिन मुझे बहुत दुःख हुआ क्योंकि जब उच्चतम न्यालय ने ११ दिसंबर २०१३ को जजमेंट दिया बहुत गुस्सा और शॉक हुआ था। जब वकीलों ने निर्णय समझाया तो महसूस हुआ कि ये संविधान के कितने विरुद्ध है और इसमें कितनी गलतियाँ हैं। काफी चीज़ें उन्होंने देखी ही नहीं हैं, ऐसा लगा। दोस्तों ने कहा कोर्ट ने सब दरवाज़े बंद नहीं किये, संसद का दरवाज़ा खुला रखा है। पर ये उनका काम कैसे नहीं है? ये संवैधानिक अधिकारों कि बात है, तो बाकी सब अधिकारों को ‘ओवर-राईड’ करते हैं। पिछले कुछ सालों से सुप्रीम कोर्ट काफी एक्टिविसम कर रहा था। सरकार और सांसदों को समझा रहे थे, क्या करना चाहिए। अचानक ये क्या हुआ ऐसा मुझे लगा। सरकार ने तुरंत रिव्यु पेटिशन किया इससे आशा मिली थी। मुझे लगा रिव्यु पेटिशन स्वीकार होगा, नहीं हुआ तब भी चोट पहुंची।
‘४ लाइनों’ की बात से मुझे याद आया। १९७४ की बात है। मैं सुप्रीम कोर्ट को काफी मानती हूँ। आज तक जब भी नाटककारों, चित्रकारों इत्यादि की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का सवाल आता, हम कोर्ट के ज़रिये अपना हक़ वापस लेते थे। एक बार हमारा नाटक सेंसर से पास नहीं हुआ था। उसके खिलाफ आंदोलन चल रहा था। हमने क़ानूनी रास्ता निकला – बिना टिकट बेचे, प्राइवेट शो हो सकता है, और हमने रविन्द्र नाट्य मंदिर ३ शामों – सोमवार,मंगलवार और बुधवार के लिए बुक किया। अचानक शुक्रवार को शाम को हमे रविन्द्र नाट्य मंदिर की नोटिस आयी कि सारे शो रद्द किये गए। क्योंकि मैनेजमेंट के पास ‘प्रबंधन का अधिकार सुरक्षित’ होने का क्लॉज़ था। हम लोग कोर्ट भागे, रात भर लीगल डॉक्युमेंट बनाया, सुबह बॉम्बे हाई कोर्ट में सबमिट किया। उन्होंने स्टे लाया। तब तक थिएटर में सेट लगाना शुरू हुआ था, फिर निकाल दिया। ये जजमेंट भी २ लाइन का था। कोर्ट ने कहा: ‘मैनेजमेंट के पास अधिकार है। पर कारण भी होना चाहिए।’ जब सरकार के अभियोजक (प्रासीक्यूटर) ने कहा की एक राजनैतिक दल ने हंगामा करने की धमकी की है, तो कोर्ट ने सरकार से कहा, ‘अगर धमकी आए तो संविधान के अनुसार ये आपका दायित्व बनता है की आप थिएटर वालों को सुरक्षा दें। उनका हक़ है और उनका संरक्षण करना आपकी ज़िम्मेदारी है। और हमने प्रयोग किया। मुद्दा ये है, की ये १९७४ की बात है। ४० साल पहले। आज हम हैं २०१४ में। ये क्यों हो रहा है? आज हमे अपनी सोच में आगे जाना है, मैंने सोचा था की सुप्रीम कोर्ट सबसे ज़यादा ज्ञानी हैं। चुटकी भर में निरपराधिकरण बरकरार हो जायेगा। तो मुझे उस दिन बहुत निराशा हुई।
०४) भारत के एल-जी-बी-टी आंदोलन के लिए आगे का रास्ता कैसा होगा?
मैंने वकीलों से पूछा है जो एक्सपर्ट है और उन्होंने समझाया। शायद क्यूरेटिव पेटिशन पेश करेंगे। कितना यश मिलेगा वो अलग बात है। वकीलों की टीम सुन्दर और कर्तृत्ववान हैं। पूरी कम्युनिटी को उनका साथ देना चाहिए। समुदाय के पास एक ही चारा है। वे सब बाहर आए, ‘कम आउट’ करें। मैं समझ सकती हूँ कहना आसान है, करना कठिन। लेकिन अगर तुम्हें अपने अधिकार चाहिए तो तुम्हे कुछ न कुछ त्याग करना ही होगा। शायद थोडीसी अपनी ‘सिक्यूरिटी’ की भावना। अब गे और लेस्बियन को मैं ट्रांसजेंडरों का (या उन गए-लेसबीयन जो औरताना या मरदाना हैं, उनका) उदाहरण देना चाहती हूँ। उनके ऊपर अत्याचार होते ही हैं, क्योंकि वो ज़ाहिर हैं। लेकिन ऐसे बहुत हैं जो गे और लेस्बियन अदृश्य रहके आराम से ज़िन्दगी बिता सकते हैं। उन्हें बहार आना चाहिए। बहार आना मतलब टीवी पे या अखबार में इंटरव्यू देना नहीं है।
जो लोग अभी तक नहीं बाहर आए, ये इनके लिए मौका है। क्या बाकी लोग जो लड़ रहे हैं, आप पीछे आराम से कैसे रह सकते हो? अगर कल बदलाव आया तो उसका फायदा सभी लेंगे। तो क्या छिपके रहना ठीक है? जब सब एक साथ और लड़ें तो बदलाव का चांस ज्यादा है। मेरी बेटी विदेश में रहती है, लेकिन वो मुझे इस लड़ाई में पुरी मदद करती है। जब भी हो सके वहाँ से लिखती है। बाहर के भारतीय भी काफी मदद कर रहे हैं, लिखकर, फंड्स इकठ्ठा करके। जैसे राजकीय पक्षों का होता है, वैसे होना चाहिए। छोटे-छोटे गुट अलग अलग कम कर रहे हैं, सब आइये एक छतरी के नीचे, बिना भेदभाव के।
मुझे लगता है सर्वेक्षण होना ज़रूरी है, समुदाय में कितने लोग हैं. कठिन है पर मुझे यकीं हैं की स्वयंसेवक आगे आएंगे इस काम के लिए। क़ानूनी और संवैधानिक लड़ाई चलती रहेगी। मुझे बहुत बुरा लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने समुदाय को “मिनीस्क्यूल माइनॉरिटी” कहा। पर अगर लोग अँधेरे में रहते हैं, खुद बताते नहीं तो फिर कैसे होगा? इसलिए बड़ी संस्थाओं से मेरी गुज़ारिश है की गांव-गांव में, राज्य-राज्य में, सर्वेक्षण कराएँ, और वह गोपनीय भी रखा जा सकता है। समाज में बाहर नहीं आए तो कम से कम सर्वेक्षण में अपनी गणना कराये। दूसरी बात कमसे कम माँ-बाप के सामने बाहर आए। और उसके साथ माँ-बाप स्वीकार करें. २००९ के निरपराधिकरण के पहले भी अपराधीकरण के समय कितने लोग बहार आ रहे थे न? कैसे आ रहे थे? साहस की वजह से. अपने माता-पिता से झूठ बोलकर, छुपकर वे ज़िन्दगी नहीं बिताना चाहते थे. और जो २००९ के बाद बाहर आए, वे तो वापस पीछे नहीं जा सकते न?
एक टीवी शो पर कहा गया, “मैं समलैंगिकों के खिलाफ नहीं पर भारत इन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।” अगर हम बहुमत से जायेंगे तो देश कभी विकास नहीं करेगा। राजकीय और और क़ानूनी प्रणाली का काम है कानून बनाना जो सबके साथ इन्साफ करे, प्रगतिशील हो और देश को आगे ले जाए। इसके बिना कोई बदलाव नहीं आता। धर्मों के अंदर बदलाव हुए, और कुछ कानून से करे गए। जब मैं छोटी थी, विधवाओं के बाल काटते थे। उससे पहले तो उन्हें सती भेजते थे। आज कोई करेगा ऐसे? ये क्यों हुआ? जब कानून हुए क्या समाज उनके पीछे था? नहीं। औरतों को और कुछ जातियों को पढ़ना मना था। संवैधानिक हक़ से कानून बदले। तब तो देश आगे जा रहा है। ये कैसा पाखण्ड है की पर्सनली मेरे गे लेस्बियन दोस्तों के लिए बहुत करुणा है पर देश तैयार नहीं है। आप ने कोई सर्वेक्षण किया है इसे साबित करने के लिए? आप सिर्फ ये सोचते हैं। शायद भारत तैयार है, आप नहीं!
संसद में समलैंगिकता का निरपराधिकरण होना नामुमकिन नहीं पर वह एक लम्बी प्रक्रिया होगी। हर एक सांसद को बताना पड़ेगा, क्यों, क्या, इत्यादि, फिरसे शून्य से शुरुआत करनी होगी।
०५) भारतीय समलैंगिकों के माता-पिताओं के लिए आप का क्या सन्देश है?
भले ही उस कानून कि वजह से हमारे बच्चों को गुनहगार माना जायेगा। पर जब तक हम माँ-बाप और समाज के लोगों को विश्वास है कि हमारे बचे गुनहगार नहीं है, तब तक ये लड़ाई आगे चालू रहेगी, कितने भी बरस लगे। इस इंटरव्यू द्वारा मैं समलैंगिकों के माँ-बाप को कहना चाहती हूँ: क्या आप अपने बच्चों पर प्रेम करते हैं, विश्वास करते हैं? क्या आपने अपने बच्चों को ‘सच कहो, सच जीयो’ ये सिखाया है? अगर हाँ, तो अब ये वक़्त है कि आप ने जो कहा है अपने बच्चों को, वो जीवन में लाने के लिए आप उन्हें सहारा दें। मैं समझ सकती हूँ आप पर कितने दबाव है, खास कर छोटे गावों में, पर कहीं न कहीं अगर जीतना है तो ये करना पड़ता है। १९४७ तक ऐसे ही अनेक देशवासी लड़े, तब जाके स्वतंत्रता मिली, ये हम भूल नहीं सकते। आज अपने बच्चों के स्वतंत्रता की बात है। मैं माँ-बाप से अपील करती हूँ कि आप आगे आएँ, सहारा दें। आज समाज के लोग काफ़ी साथ आ रहे हैं। क्योंकि वे समझ रहे हैं कि संवैधानिक हक़ के ये निर्णय खिलाफ है. आज जो एल-जी-बी-टी समुदाय को हुआ कल वो दूस्रून के साथ भी हो सकता है।
इंटरनेट पर मुझ से सवाल पूछा गया मराठी के लेख के बाद. हमसे सहमति उगलवाने का इतना प्रयास क्यों? मैं जवाब देना चाहूंगी कि कोई दबाव नहीं है। हम सिर्फ जानकारी दे रहे हैं, इस उम्मीद के साथ की उसके बाद आप सोचना शुरू करें। क्या मैं इसलिए व्यथित हूँ के सैक्स के बारे में बात हो रही है? या फिर ‘फॅमिली वैल्यूज’ के लिए डर होता है? अगर ये शंकाएँ या डर है, तो प्रश्न पूछें। दरवाज़े मत बंद कीजिये। कोई ज़बरदस्ती नहीं कर रहा। कोई आपको कन्वर्ट करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वो हैं, जो हैं। जैसे आप हमेशा से भिन्नलैंगिक हैं, वे समलैंगिक हैं। उनको अपनी ज़िन्दगी जीने दो, और आप अपनी ज़िन्दगी जियो।
०६) भारतीय समलैंगिकों के लिए आप का क्या सन्देश है?
एल-जी-बी-टी बच्चों को कहती हूँ, “सोचो, ऐसे असंवैधानिक बातों से दूसरों पे कब से जुल्म चल रहा है? तो जिनपे अन्याय हो रहा है उन सबको इकठ्ठा एना चाहिए और एक दूसरे को साथ देना चाहिए, ये मैंने ३ साल पहले भी कहा था। फिर नंबर बढ़ेंगे, कोई भी “मिनीस्क्यूल” नहीं रहेगा!
०७) इंटरनेट पर समलैंगिकता सम्बन्धी संसाधन प्रायः अंग्रेजी में हैं. क्या अंग्रेजी बोलनेवाले माँ-बाप के लिए स्वीकृति ज़यादा आसान है? जिनके माँ-बाप अंग्रेजी नहीं बोलते क्या उन्हें कठिनाइयां अधिक होती हैं?
जब मेरी बेटी ने १९९० की शुरुआत में बताया कि वह लेस्बियन है तब मटेरियल नहीं था। आज है। सुपोर्ट सिस्टम भी है। कहते हैं बड़े शहरों मेंके मुक़ाबले अंदरूनी हिस्से में ज़यादा होमोफोबिया है। ऐसा मैं मानने को तैयार नहीं हूँ पर क्षणभर के लिए ऐसा मान लो. तब भी अंग्रेजी जाननेवाले पेरेंट्स को पम्फलेट्स, टीवी शो दिखाएँ, इनफार्मेशन इत्यादि दें, एक मार्ग यह भी है की सब भाषाओँ में जितना हो सके ये जानकारी दी जाए। और अगर प्रकाशित संसाधन कम हैं, तो कम से कम बैठकें बुलाएं जिनमें सिर्फ अनुभव ही नहीं, जानकारी देना महत्त्वपूर्ण हो। जिन बच्चो को अपने माँ-बाप को बताना है वो ये सब पढ़कर अपनी भाषा में समझा सकते है। सबसे बड़े सवाल जैसे ये नैसर्गिक है या अनैसर्गिक? क्या लैंगिकता बदली जा सकती है? ऐसे प्रश्नों के जवाब अपनी भाषा में जानना बच्चो के लिए और उनके ज़रिये माँ-बाप के लिए ज़रूरी है। एक मार्ग ये भी है कि सब भाषाओँ में जितना हो सके ये जानकारी दी जाए।
क्या लैंगिक रुझान चॉइस है या उपजत है? ये बताना ज़रूरी है कि ये पैदाइशी और नैसर्गिक है। इसके लिए विज्ञान, मनोविज्ञान, मेडिसिन में सबूत हैं। मनोचिकित्सकों की सूचि हो जो गे-फ्रेंडली हों। जब मैं बात करती हूँ तो असर क्यों पड़ता है? क्योंकि मैं भिन्नलिंगी हूँ, और माँ हूँ। जिन लोगों का समुदाय सो कोई पर्सनल लेना-देना नहीं है, सिर्फ प्रोफेशनल हैं, वकील, मनोचिकित्सक, डॉक्टर, अगर ऐसे लोग आकर बात करे ऐसे अच्छा होगा जब वो बतौर एक्सपर्ट बात करें। या उनसे सीधी भाषा में लिखवाकर लोगों में पास करें। मराठी मासिक में लेख लिखने या परिसंवाद में हिस्सा लेने के लिए मैं कभी ना नहीं कहती।
०८) माँ होने के नाते आपको समाज में बहुत इज्ज़त मिलती है. आप समलैंगिकता का विरोध करने वाले धर्मगुरुओं को क्या कहना चाहेंगी?
आप अपने ही धर्मग्रंथों में मिलेगा कि सहिष्णु होना और करुणा का महत्त्व हर धर्म कि नींव है। क्या आप इसके बारे में सोच सकते हैं, आपस में चर्चा कर सकते हैं? धार्मिक, राजनैतिक, औद्योगिक, बिज़नस लीडरों से मैं कहूँगी कि ये कोई एक जाती, धर्म, समाज या देश में नहीं हैं, वे दुनिया भर में हैं। आपके नज़दीकी लोग भी समलैंगिक हो सकते हैं। तब क्या आप उनको ठुकराएंगे? क्या ये मानव धर्म हैं? एलजीबीटी लोग भी धार्मिक होते हैं, हो सकते हैं। कोई भी भगवन किसी भी मानव को ठुकराएगा नहीं!
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