‘स्क्रिप्ट्स‘, नं १५, दिसंबर २०१५ में प्रथम प्रकाशित। छाया: ब्रूनो गताँ /क्वीयर आजादी २००९ /तस्वीर केवल निरूपण हेतु
“जब मैं बुर्का पहनकर…”
… हॉल में दाख़िल हो रही थी, वहाँ मौजूद सभी लोगों की निगाहें मुझ पर जमी थीं। शायद वे यह सोचते होंगे कि ये बुर्क़ा पहने यहाँ क्या कर रही है? वहाँ पहुँच कर मुझे भी थोड़ा अजीब लग रहा था। मैं वहाँ अपनी दोस्त के साथ पहुँची थी। मेरी नज़र अपने जाने पहचाने लोगों को ढूँढने लगी। दरअसल मैं और मेरी दोस्त वहाँ ‘लर्ज़िश फ़िल्म फ़ेस्टिवल’, जिसमें हमज़िंसी मुद्दों पर फिल्में दिखाई जा रहीं थीं, के लिए गये थे। हमज़िंसी शब्द नया नहीं था मेरे लिए। जब मैं आवाज़-ए-निस्वां से जुड़ी थी, वहाँ कुछ साथी ‘स्त्री संगम’ (जिसका नाम बाद में ‘लेबिया’ बना) से जुड़े थे और हमज़िंसी हेल्प-लाइन चलाने में मदद करते थे। उन्हीं दोस्तों से बातचीत के दौरान यह शब्द मेरी ज़िंदगी की लुगत में शामिल हुआ।
वहाँ जैसे ही मैं और मेरी दोस्त हॉल में दाख़िल हुए, एक दो जाने-पहचाने लोगों को देख कर राहत मिली। हम बड़े उत्साह से बैठे, पर जैसे ही फिल्म शुरू हुई, आँखें हैरत से खुली की खुली रह गयीं। इस तरह की फिल्में मैंने कभी नहीं देखीं थीं। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, ए.सी. हॉल में भी मेरे पसीने छूटने लगे। जिस्म में मानो अजीब सी लर्ज़िश, घबराहट – उफ़! सब से पहले मैंने बुर्क़ा उतारा। सोचा कि बुर्क़ा पहने मैं यह क्या देख रही थी, और गर्मी भी काफ़ी होने लगी थी। वजह क्या थी पता नहीं। मुझे बस ऐसा लग रहा था कि ये मैं कहाँ आ गयी? जैसे ही फिल्म ख़त्म हुई, मैं और मेरी दोस्त सबसे नज़र बचाकर हॉल से बाहर निकले।
हम दोनों बहुत ख़ामोश थे। एक अल्फ़ाज़ तक नहीं निकला ज़ुबां से। कुछ दूर यूँ ही खामोश चलने के बाद हमारे कदम अचानक रुक गये। वहाँ एक फूड-स्टॉल लगा था। हम वहाँ पहुँचे, फूड ऑर्डर किया, और जैसे ही पहला लुकमा हाथ में लिया, हम दोनों की नज़रें मिलीं। इतनी देर में पहली बार हमने एक दूसरे को देखा। मेरी दोस्त ने आहिस्ता से कहा, “अब रोज़ा टूट गया होगा ना?” मैंने बस इसरार में सर हिलाया और फ़िर हम दोनों खाने में मसरूफ़ हो गये। दरअसल रमज़ान का महीना था। रोज़े की हालत में हमने जो देखा था, उससे यह तो समझ गये थे कि अब तो रोज़े का सवाब मिलने से रहा।
उस दिन एहसास हुआ कि कहने और क़बूल करने में एक फ़ासला होता है। जब पहली बार मुझे हमज़िंसी रिश्तों के बारे में मालूम हुआ तो मैंने बड़े फिल्मी अंदाज़ से कहा था, “प्यार कहीं भी, किसी को भी, किसी से भी हो सकता है!” पर कुछ कहना और उसे अपनी आँखों से देखना – यह एक मुश्किल मर्हला है। ये हदें, बंदिशें मेरी परवरिश और माज़ी के माहौल की देन थीं।
जब मैं नारीवाद सोच रखने वाले ग्रूप्स अथवा लोगों से मिली, तब सभी से बातचीत और घंटों चलने वाली बहस से कम-अर्ज़-कम इतनी समझ तो आई कि आने वाले मुद्दों को खुले दिमाग़ से सुनने की कोशिश करूँ।
दिल और दिमाग़ में पैदा होने वाले सवालों के जवाब के लिए हमेशा दोस्तों का साथ मिला। सोच जब बदली तो अक्सर मीटिंग्स में गाया जाने वाला एक गीत “तुम्हारा साथ मिलने से” को उसके असल मायने में गाने लगी हूँ। “एहसास-ए-कुव्वत” जो मिला, मैं पहली बार क्वीयर आज़ादी मार्च में शामिल हुई। सभी लोग नाचते, गाते, आवाज़ व शोरगुल मचाते इंद्रधनुष परचम लिए रास्ते पर निकल पड़े थे। मैं पहली बार इस तरह सभी लोगों के बीच मौजूद थी। थोड़ी सी झिझक पता नहीं क्यों हो रही थी। सभी नाच रहे थे – नासिक ढोल पर पंजाबी भांगड़ा। मेरा मन काफ़ी चाह रहा था, मगर मैंने खुद को काबू में रखना चाहा। लेकिन जिस्म कहाँ किसी बंदिश को समझता, मानता है? कई बार ढोल की ताल पर मेरा कंधा उचकता, कहीं कमर ताल से ताल मिलाती।
हम सब अपनी मंज़िल पर पहुँचने ही वाले थे, और यह सब मस्ती-मज़ा ख़त्म होने जा रहा था। मैंने मेरी दोस्त सैंडी से कहा, “यार बड़ा मन कर रहा है नाचने का!” और उसने तपाक से कहा, “तो नाचो!” मैंने उदास लहज़े में कहा, “किसी ने देख लिया तो?” सैंडी ने बड़ी लापरवाही से आँख मारते हुए कहा, “तो क्या फ़र्क पड़ता है? कौन पहचान पाएगा तुम्हें? और अभी ख़त्म हो जाएगा। देख लो हम बस पहुँचने ही वाले हैं।”
मैं जल्दी से अपना बॅग उन्हें थमाकर शामिल हो गयी। सिर पर इंद्रधनुष परचम आसमाँ बना था, और नीचे मैं। खूब नाची जब तक साँस उखड़ने ना लगी और जिस्म पसीने में सराबोर ना हो गया। शाम को जब घर आई, तो हर न्यूज़ चैनल पर मार्च दिखाया जा रहा था।
मैं थोड़ी सी सहम गयी कि कहीं मेरा पंजाबी भांगड़ा टेलीकास्ट ना हो जाए। गर हो गया तो घर वालों का तांडव शुरू हो जाएगा। बहरहाल ऐसा नहीं हुआ। मैं काफ़ी ख़ुश थी। मेरे जिस्म ने आहिस्ता से मुझे “शुक्रिया” कहा।
खैर अब तो घर के माहौल और ज़ाती तौर पर मुझमें काफ़ी तब्दीली आई है। हाल तो यूँ है कि
बुत कहे काफ़िर हमें
ख़ुदा की मर्ज़ी…
इन सभी वाक्यात से यह बात तो समझ आई कि हम सब कई वजूहात से अपने ही तन और मन की बातों को नज़रअंदाज़ करते हैं। पर जब कभी मौका, माहौल, दोस्तों का साथ, हम-ख़याल ग्रुप, या ऐसी जगह मिले जहाँ आप अपने सवाल और ख़यालात को रखते हुए मुख़्तलिफ़ नज़रिये समझते हो, तो ख़ुद को तस्लीम करना आसान हो जाता है।
यही कुव्वत मुझे लेबिया के साथियों से मिली है। ख़ुद को न सिर्फ़ निजी तौर पर समझना, बल्कि अपने काम के ज़रिए जिन्सीयत के मुद्दों पर बातचीत करना। इससे जुड़े हर पहलू को समझने की कोशिश करना। फ़िर चाहे वो क़ानूनी हो, सियासी, या सामाजिक। चाहत के दायरे से निकलकर चाहतों को समझना। सिर्फ़ मर्द और औरत की पहचान को तोड़कर मुख़्तलिफ़ शनाख़्तों को समझना। यह सब मुमकिन न हो पाता अगर लेबिया के साथियों का साथ ना होता।
‘स्क्रिप्ट्स‘, नं १५, दिसंबर २०१५ में प्रथम प्रकाशित।
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