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कविता : दद्दा

crying eye

eyes

किसी तीसरे को किया गया
ये सम्बोधन
फँसा है तेरे-मेरे बीच
जैसे दद्दा में
दो द के बीच
एक आधा द
था नशे में धुत उस रात
किया था जब फ़ोन पहली बार
सब दूसरों के बीच
जिनके बीच नशा, और मस्ती
और रात भर की आवारागर्दी
के बाद लौटता हूँ मैं
कमरे पर
अकेलापन निकल आता है बाहर
रेंगता है दीवारों पर
बिछ जाता है फ़र्श पर
मैं ढूँढता रहता हूँ ख़ुद को
शराब की ख़ाली बोतलों में
लुढ़के हुए गिलासों
जूठी तश्तरियों में
सिगरेट से भर चुके कटोरे में

    तब उस दिन किया था तुझे फ़ोन 
    कह गया न जाने क्या-क्या 

अनाप-शनाप
प्यार-प्यार प्यार
अंत- शंट प्यार
बकता गया
बेहोश हो जाने तक
सुबह तेरा आया कॉल वापस जब
तब
चुप मैं रह गया
ओढ़ लिया मैंने कोई नापाक खोल
बोल-बोल क्या-क्या बोला मैंने
याद रह गया है तुझे मेरा यह बकना
और वह सम्बोधन
“…दद्दा…”
जिसके मायने बदल दिए हैं
तेरी आवाज़ के शब्दकोश ने
बन गया है यह कोई प्रेम-वाक्य
संगीत
जिस पर नाच जाते हैं मेरे कान
जब तू कहता है
“दद्दा”
सुनता हूँ मैं तेरी साँसें
अपनी रूह से गुजरते हुए
अपनी नसों में तैरते हुए
दिल की धड़कन तेज होते हुए
जब तू कहता है
“दद्दा”
चूम लेना चाहता हूँ मैं तेरे होंठ
तब
यक़ीन है मुझे
तेरी आँखों में दिखाई देगा
शायद दुनिया का सबसे कामुक
सम्बोधन जैसे कि
“दद्दा….”

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