ट्रांस है तू —
अधूरी औरत…
बहुत कुछ सुना है प्रभा ने
और सुन रही है अब भी,
जो पहले प्रभव थी

जिन्होंने उसे प्रभव देखा था
उनमें से कुछ उसको अपना गए
उसके साथ सामंजस्य स्थापित कर गए,
बाकियों की क्या कहें —
रूढ़िवादी तो हर वर्ष बनते हैं !
विद्यमान रहते हैं !!
इस वर्ष भी हो गये
वो ना कर पाए कभी स्वीकार
प्रभव को प्रभा के रूप में

आखिर क्या कहे प्रभा भी ?
कितना सहा है उसने
वही जानती है यह
पहले परिवार छूट गया
और अब परिचित भी

गिनती के चार-पांच लोग हैं
उसके पास, उसके जीवन में !
लेकिन उसे धैर्य है
बहुत अच्छा-खासा
वो भी बचपन से,
इसी बात से वो जीतती आई है
और जीत गई इस बार भी
क्योंकि वो जानती है कि
मात्रा से ज्यादा गुणवत्ता मायने रखती है !

उसने अपनी लैंगिकता पहले-पहल
समलैंगिक के रूप में आत्मसात् की थी
फिर नॉन-बाइनरी के रूप में
लेकिन अब वो ट्रांस है
और वो खुश है
और कइयों के लिए उनकी प्रेरणा

अब वो नौकरी कर रही है
खुद को पाने के लिए,
खुद को एक अच्छा जीवन देने के लिए
और बहुविध सकारात्मक बदलावों के लिए ।