रोशनदानों की रोशनी सी पुलक-पुलक मैंने इबादत पढ़ी है जो
परवरदिगार इसका तू और आयात तेरे अफ़साने।
जावेदा-सी नहीं है ये शमा कोई,
तेरी जुस्तजू में आफ़ताब-सा मेरा हिय सुलग उठा है।
हिय मेरा जो पुलक-पुलक ये सुलगे,
ये तो बस पाक होने का ज़रिया है।
आसीबी आतिशों में हयात जो मिट जाए मेरी, ऐसी शिकस्त से पहले,
तेरी कुर्बत में फना हो।
सिसक-सिसक मेरा हिय ये रोए,
क्योकि कुर्बत से है तुझे नामंजूरी।
ऐसे दस्तबरदार न कर मुझे यों ,
लिहाज़ तो कम से कम कर एक अनासिर बुत का ही।
तेरे सजदे में रहने को ये ज़माना ३७७ बार टोकता है,
खून के कतरे टपक जाते हैं टूटे दिल से
जब तू कहे ‘महोब्बत जुर्म है मेरा’।
ज़माने का कुछ ऐसा ही इखतियार देख कर,
मेरा खुदा भी सहम-सहम कर रोता है
सिसक-सिसक कर रोता है।
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