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प्रस्तुत है भाग ३:
उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कराते हुए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने भी उसका हाथ पकड़कर उसके पास बैठ गया। वह अभी भी मुस्करा रहा था। उसकी वे अधखुली नीली आँखे बहुत मासूम लग रहीं थीं। मैं और देर उसके पास बैठना चाहता था लेकिन काम बहुत था। मैंने अपना हाथ खींचते हुए उसके सिर पर एक बार हाथ फैराकर वहाँ से हट गया। अपने टेबल पर आकर कागज़-परची पूरी कर रहा था, तभी नर्स ने आकर कहा: “मैं १ से ४ नं वाले मरीजो को स्पंज और चेंज करवा देती हूँ। आप दुसरे मरीज़ों को करवा दीजिए।” न जाने क्यों मैंने उसे कहा, “तुम १ से ४ वालों को रहने दो। मैं उन्हें स्पंज और चेंज करवा दूँगा। तुम दुसरे मरीज़ों को देख लो।” वह ‘ठीक है’ कहते हुए चली गयी। मैंने भी उठकर टब, स्पंज, तौलिया वगैरह ट्रोली पर सेट किये और १ नं वाले मरीज की तरफ बढ़ा। पलंग के चारो तरफ परदे लगाकर पहले, फिर दुसरे और उसके बाद तीसरे मरीज को स्पंज किया।
उनके कपडे बदलकर जब पॉल के बेड पर पहुँचा तो वह अभी भी सो रहा था। उसकी ड्रिप भी पूरी हो चुकी थी। ड्रिप हटाकर पॉल को जगाया और बिठा दिया। आज वह कल से थोड़ा बेहतर लग रहा था। मैंने उसकी शर्ट के बटन खोले और उसे स्पंज देने लगा। तभी मैंने देखा कि उसकी पीठ पर चोट के चंद नीले निशान थे। जब भी स्पंज करते हुए मेरा हाथ उन निशानों पर लगता, वह दर्द के कारण थोडा-सा कंपकंपाता । जब मैंने इशारो से उससे इसके बारे में पूछा तो वह कोई जवाब नहीं दे पाया। और ऐसे ही निशान उसके निचले शरीर पर भी थे। शायद पुलिसवालो की मार के निशान हो या कुछ और; जो पाँच दिनों बाद, अभी भी दर्द दे रहे थे। जब मैं उसके कपडे बदलवा रहा था, मैंने उसके हाथ अपने कन्धो पर रखे। मुझे अहसास हुआ कि वह मुझे अपनी ओर खींचकर गले लगाना चाहता है। लेकिन शरीर में ताक़त के अभाव वश ऐसा नहीं कर पा रहा था। उसे नए कपडें पहनाकर मैंने उसे हलके से गले लगाया। उसकी आँखें नम हुई ।
काम ख़तम करके मैं फिर दूध और मकई के भुने हुए फूले लेकर उसके बेड पर पहुँचा। उसने कोर्न फ्लेक्स और दूध पूरा ख़तम कर दिया। आज वह कल से कुछ बेहतर लग रहा था। फिर उसे दवाई और इंजेक्शन देकर मैं अन्य ज़िम्मेदारियों में जुट गया। ११ बजे डॉक्टर के आने पर मैंने पॉल की पीठ और शरीर के निजी अंगों में लगे नीले निशानों के बारे में बताया। तो डॉक्टर ने भी देखा और पुलिस स्टेशन फ़ोन करके पुलिसवाले को फ़ौरन एक घंटे के अंदर हॉस्पिटल आने को कहा। डॉक्टर को भी इन निशानों के लिए पुलिसवाले ही दोषी लग रहे थे। पुलिसवाले भी कितने निर्दयी होते हैं, जिस आदमी को अपना होश नहीं, जो अपना बुरा-भला नहीं सोच सकता, उसे इस तरह बेरहमी से मारना? ऐसा शक्स जो पूरी तरह डिप्रेसन का शिकार है, उसे भी नहीं बक्शते। पॉल की हालत पर मुझे बहुत तरस आ रहा था। दिन को खाना खिलाने और आनेवाले कम्पाउंडर को उसे रात में खाना खिलने और ध्यान रखने की हिदयात देने के बाद मैं ३ बजे हॉस्पिटल से निकला।
उस दिन डॉक्टर ने बतया था कि वह मेयो कोलेज का छात्र है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि पिछले दो दिनों से कोलेज की तरफ से उसे कोई देखने तक कोई नहीं आया था। न जाने क्या सोचकर मैंने अपनी बाइक का रुख मेयो कॉलेज की तरफ किया। यूँ तो मुझे मरीज़ों के निजी जीवन में दिलचस्पी नहीं होती। हमें हमारी ट्रेनिंग के दोरान भी इस बात की खास हिदायत दी जाती है कि हमारे लिए मरीज़ एक मरीज़ है, जिसे ठीक करके घर भेजना, सिर्फ यही हमारा ध्येय होना चाहिए। उसकी निजी जीवन से हमारा कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। लेकिन न जाने क्यों, पॉल के मामले में, मैं इस सीमा का सम्मान नहीं कर पा रहा था। मैं जब कॉलेज पहुँचा तो मेन गेट पर सिक्यूरिटी वाले ने रोककर पूछा, “किनसे मिलना है?”
मैंने उससे पॉल के बारे में जानना चाहा क्योंकि उसका केस ऐसा था कि हर आदमी उस बारे में जरुर बात करे, पर सिक्यूरिटी वाले ने कुछ बताने से मना कर दिया। मैंने उसे बताया, “भाई, मैं किसी अख़बार से नहीं हूँ। मैं तो हॉस्पिटल से हूँ। उसकी हालत बहुत ख़राब है। इसी बारे में बात करनी थी। तब मृदु भाव से उसने कहा: “साहब लड़का तो बहुत अच्छा था। लेकिन ऊपर से आर्डर है कि इस बारे में कोई बात नहीं करनी है। तो मैं इस बारे में कुछ नहीं बता पाउँगा।“ मुझे शक हुआ कि दाल में जरुर कुछ काला है। बात उतनी सीधी नहीं है जितनी दिखाई जा रही है। मेयो कोलज जैसे कोलेज का अपने स्टूडेंट के प्रति – और वह भी जो विदेशी है उसके प्रति – ऐसा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था। मैंने सिक्यूरिटी वाले से पुछा कि इस बारे में किससे जानकारी मिल सकती है। लेकिन उसने इस बारे में कुछ भी बताने से मना कर दिया। और मुझे कॉलेज के अन्दर नहीं आने दिया।
मै मायूस होकर वापस घर लौटा। माँ ने पॉल के बारे में पूछा, “उसने नाश्ता किया कि नहीं?” मैंने कहा, “हाँ। वह कल से थोड़ा बहेतर है। तभी अचानक मुझे ध्यान आया कि मेरी फेसबुक पर एक दोस्त है जो मेयो कोलज में ही पढ़ता है। सो मैंने बाइक उठाई और इन्टरनेट कैफ़े की तरफ कूच किया। ख़ुश-किस्मती से वह फ्रेंड भी ऑनलाइन था। मैंने उससे हालचाल पूछकर उससे पॉल के केस के बारे में पूछा। जो उसने बताया उससे मैं हतप्रभ रह गया।
आगे की कहानी पढ़िए ‘पॉल एक गाथा’ की चौथी कड़ी में, गेलेक्सी हिंदी में ३० अप्रैल २०१७ को।
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